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सूर्यकांत त्रिपाठी ' निराला'


सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

कविवर सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का जन्म 1899 ई. में  बंगाल में महिषादल गांव में। उनके पूर्वक उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के गढ़कोला गांव के मूल निवासी थे। निराला का मूल नाम ' सूर्य कुमार' था। 
 जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा के साथ हिन्दी साहित्य में छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला '।  

इनकी पत्नी मनोहरा देवी एक विदुषी महिला थीं। 1918  में पत्नी का देहांत हो गया। कुछ समय पश्चात पिता, चाचा, चचेरे भाई की भी मृत्यु हो गई। किंतु विवाहित पुत्री सरोज की मृत्यु ने निराला को भीतर तक झकझोर दिया। ' निराला ने पुत्री की याद में लिखी' सरोज स्मृति'। 
उन्होंने कहानियाँ, उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेष रुप से कविता के कारण ही है।
इनकी 'परिमल, गीतिका, अनामिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा , नए पत्ते, बेला, अर्चना, आराधना, गीतगुंज आदि रचनाएँ प्रसिद्ध हैं। 
छायावादी होने के साथ ही निराला प्रगतिवादी कवि भी हैं क्योंकि उनकी कविताओं में शोषण के विरोध और शोषकों के प्रति घोर घृणा की अभिव्यक्ति हुई है। 
उनकी रचनाओं में प्रकृति का विराट तथा उदात्त चित्र, विद्रोह, क्रांति, प्रेम की तरलता तथा दार्शनिकता के प्रति गहरी सहानुभूति का भाव मिलता है। वे क्रांतिदर्शी कवि हैं। ' बादल राग' उनकी क्रांति भावना से युक्त कविता है है तो ' वह तोड़ती पत्थर' कविता में प्रगतिवादी स्वर है। अर्थात्‌ इनकी कविताओं में शोषित, उपेक्षित, पीड़ित और प्रताड़ित जन के प्रति गहरी सहानुभूति का भाव मिलता है, वहीं शोषक और सत्ता के प्रति आक्रोश का भाव भी दृष्टिगोचर होता है। निराला को सर्वाधिक प्रसिद्धि मिली 1916  में लिखी कविता ' जुही की कली' से। अक्खड़ स्वाभाव के निराला की काव्य प्रतिभा अद्भुत थी। 
हिंदी छायावादी कविता में निराला का महत्त्वपूर्ण योगदान है तथापि वो प्रगतिवाद के भी सशक्त हस्ताक्षर हैं।  
निराला द्वारा लिखित मेरी पसंदीदा कविताएँ... 

वह तोड़ती पत्थर 

देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर --

वह तोड़ती पत्थर.
(चित्र आभार: bharatdarshan.co.nz)

कोई न छायादार

पेड़ वह, जिसके तले बैठी हुई, स्वीकार,

श्याम तन, भर बँधा यौवन,

नत नयन, प्रिय-कर्मरत मन,

गुरु हथौड़ा हाथ, करती बार बार प्रहार:-

सामने तरुमालिका अट्टालिका, प्राकार.

चढ़ रही थी धूप,

गर्मियों के दिन, दिवा का तमतमाता रूप;

उठी झुलसाती हुई लू,

रुई ज्यों जलती हुई भू,

गर्द चिनगीं छा गईं,

प्राय: हुई दोपहर 

वह तोड़ती पत्थर.


देखते देखा मुझे तो एक बार

उस भवन की ओर देखा छिन्नतार,

देखकर कोई नहीं,

देखा मुझे उस दृष्टि से

जो मार खा रोई नहीं,

सजा सहज सितार,

सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार

एक क्षण के हाद वह काँपी सुघर,

ढुलक माथे से गिरे सीकर,

लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा -

मैं तोड़ती पत्थर.



सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता
उत्साह

बादल, गरजो!
घेर   घेर घोर      गगन, धाराधर ओ !
ललित       ललित, काले       घुंघराले,
बाल        कल्पना  के -से  पाले,
विधुत-छबि उर में, कवि, नवजीवन वाले !
वज्र        छिपा, नूतन         कविता
फिर भर दो –
बादल गरजो !
विकल    विकल, उन्मन   थे उन्मन
विश्व    के निदाघ    के सकल जन,
आए  अज्ञात  दिशा से अनंत  के घन !
तप्त       धरा, जल       से फिर
शीतल कर दो –
बादल, गरजो

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता 
अट नहीं रही है

अट नहीं रही है
आभा फागुन की तन
सट नहीं रही है।
कहीं साँस लेते हो,
घर-घर भर देते हो,
उड़ने को नभ में तुम
पर-पर कर देते हो,
आँख हटाता हूँ तो
हट नहीं रही है।
पत्तों से लदी डाल
कहीं हरी, कहीं लाल,
कहीं पड़ी है उर में
मंद गंध पुष्प माल,
पाट-पाट शोभा श्री
पट नहीं रही है।




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