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कहानी-महत्वकांक्षा

#कहानी-महत्त्व़ाकांक्षा राजकीय अधिकारी हरिओम जी अपने नाम की भाँति हरि के बहुत ही भक्त बड़े भक्त थे। ईश्वर में अपार श्रद्धा के कारण वो यथासंभव मंदिर में दान किया करते थे। शांत चित्त सुलझे हुए व्यक्तित्व के हरिओम जी के दोनों बच्चे बहुत ही अच्छी विद्यालय में पढ़कर निकले। इतने अच्छे गुणों के होने पर भी उनकी अति महत्त्वाकांक्षी प्रवृति के कारण घर में हर कभी माहौल गरमा जाता था। वो चाहते थे कि उनके दोनों बेटे भी सरकारी अफसर बनें जबकि बच्चे निजी कंपनी में कार्य करने के इच्छुक थे। हरिओम जी जबरदस्ती अपनी महत्त्वकांक्षाओं का बोझ अपने बच्चों पर डालकर उन्हें सरकारी नौकरी की तैयारी करवाया करते थे। बिना मन से बच्चे परीक्षाएँ देते पर कहीं चयन नहीं हो पाता। इस कारण वे थोड़े चिड़चिड़े हो गए और बच्चों और पत्नी पर गुस्सा निकाला करते। इस कारण बच्चे भी अवसाद में रहने लगे। बच्चों की ये हालत देखकर हरिओम जी बड़े दुखी होते पर अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को नहीं त्यागना चाहते। एक दिन ऑफिस में नंदन जी की पुत्री के सरकारी अफसर बन पाने के पीछे का राज जानकर उन्होंने भी वही मार्ग अपनाने की सोची। विज्ञप्ति निकलते ही बच्चों से फार्म भरवाए और पेपर के पहले दिन रात ग्यारह -बारह बजे बच्चों को एक प्रश्न पत्र अच्छी तरह,बार-बार हल करने को दिया। ब्लू टूथ नामक डिवाइस उलब्ध करवाकर बच्चों को पेपर के बीच न समझ आने पर बात करने को कहा। दोनों बच्चों ने इसे लेने से इंकार करते हुए पिता को समझाया कि वो स्वयं की मेहनत से कुछ करना चाहते हैं न कि नकल धोखे या बेईमानी से और पिता को भगवान का हवाला देते हुए सबके समक्ष जुर्म की माफ़ी मांगने को कहा..कुछ देर सोचकर हरिओम जी को अपनी गलती का अहसास हुआ उन्हें लगा कि जिन बच्चों के लिए ये गलत कार्य कर रहा हूँ उन्होंने आज मेरे संस्कारों का सम्मान करते हुए मेरी कमजोरी को अपनी ताकत बनाने का फैसला कर लिया तो क्या मैं उन पर अपनी महत्त्वाकांक्षाएँ थोपकर सही कर रहा हूँ। इसी उधेड़बुन में उन्होंने स्वयं पुलिस को बुलाकर अपनी गलती मानी और जेल गए। बदले में बच्चों ने भी अगले ही वर्ष ईमानदारी से परीक्षा में उत्तीर्ण होकर पिता की महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा किया। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

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