#धरती-दोहे
कानन-नग-नदियाँ सभी,धरती के श्रृंगार।
दोहन इनका कम करें,मानें सब उपहार।।
अचला का मन अचल है,डिगे न छोटी बात।
पर मानव का लोभ क्यों, छीन रहा सौगात।।
देख धरा की ये दशा,पीर उठी मन माय।
जख्म जिगर में देय के,कोय नहीं सुख पाय।।
अपने ही समझे नहीं,माँ अपनी की पीर,
लालच ने सबको किया,पापी-दुष्ट-अधीर।।
माँ का छलनी मन किया,गहरे देकर घाव।
संसाधन को ढूंढने,स्वयं डुबोते नाव।
आज अगर हम सोच ले, ले लें गर संज्ञान,
संग धरा के बची रहे,हर प्राणी की जान।।
#सुनीता बिश्नोलिया
#जयपुर
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